मेवाड़ के सेठ दलाजी को पर्चा
कहा जाता हैं कि मेवाड़ के किसी ग्राम में दलाजी नाम का एक महाजन रहता था । धन सम्पति की उसके पास कोई कमी नहीं थी किन्तु संतान के अभाव में वह दिन रात चिंतित रहता था । किसी साधू के कहने पर वह रामदेव जी की पूजा करने लगा उसने
अपनी मनौती बोली की यदि मुझे पुत्र प्राप्ति हो जाए तो सामर्थ्यानुसार एक मंदिर बनवाऊंगा ।
इस मनौती के नौ माह पश्चात उसकी पत्नी के गर्भ से पुत्र का जन्म हुआ । वह बालक जब 5 वर्ष का हो गया तो सेठ और सेठानी उसे साथ लेकर कुछ धन सम्पति लेकर रुणिचा के लिए रवाना हो गये । मार्ग में एक लुटेरे ने उनका पीछा कर लिया और यह कह कर उनके साथ हो गया कि उसे भी रुणिचा जाना हैं । थोड़ी देर चलते ही रात हो गयी और अवसर पाकर लुटेरे ने अपना वास्तविक स्वरुप दिखा ही दिया उसने सेठ से उंट को बैठाने के लिए कहा और कटार दिखा कर सेठ की समस्त धन सम्पति हड़प ली तथा जाते-जाते सेठ की गर्दन भी काट गया । रात्री में उस निर्जन वन में अपने बच्चे को साथ लिए सेठानी करूण विलाप करती हुई रामदेव जी को पुकारने लगी । अबला की पुकार सुनकर दुष्टों के संहारक और भक्तों के उद्धारक भगवान, रामदेव जी अपने लीले घोड़े पर सवार होकर तत्काल वहां आ पहुंचे । आते ही रामदेव जी ने उस अबला से अपने पति का कटा हुआ सर गर्दन से जोड़ने को कहा सेठानी ने जब ऐसा किया तो सर जुड़ गया तत्क्षण दला जी जीवित हो गया । बाबा का यह चमत्कार देख दोनों सेठ सेठानी बाबा के चरणों में गिर पड़े । बाबा उनको सदा सुखमय जीवन का आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गये । उसी स्थल पर दलाजी ने बाबा का एक भव्य मंदिर बनवाया ।
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